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गई भान पत अब क्यौ जीजै। राखि प्रान क्यों अपजस लीजै॥

इतनी बात सुन जरासंध बोला कि महाराज, आप ज्ञानवान हैं औ सब बात में जान। मैं तुम्हें क्या समझाऊँ, जो ज्ञानी पुरुष है सो हुई बात का सोच नहीं करते, क्यौकि भले बुरे का करता और ही है, मनुष का कुछ बस नही, यह परबस पराधीन है। जैसे काठ की पुतली को नटुआ जो नचाता है तो नाचती है, ऐसेही मनुष्य करता के बस है, वह जो चाहता है सो करता है। इससे सुख दुख में हरष शोक न कीजे, सब सपना सा जान लीजे मैं तेईस तेईस अक्षौहिनी ले मथुरा पुरी पर सत्रह बेर चढ़ गया और इसी कृष्ण ने सत्रह बेर मेरा सब दल हना, मैने कुछ सोच न किया और अठारहवीं बेर जद इसका दल मारा तद कुछ हर्ष भी न किया। यह भागकर पहाड़ पर जा चढ़ा, मैंने इसे वहीं फेंक दिया, न जानिये यह क्यौ कर जिया। इसकी गत कुछ जानि नहीं जाती। इतना कह फिर जरासन्ध बोला कि महाराज, अब उचित यही है जो इस समय को टाल दीजे। कहा है कि प्रान बचै तो पीछे सब हो रहता है, जैसे हमें हुआ कि सत्रह बार हार अठारहवीं बेर जीते। इससे जिसमे अपनी कुशल होय सो कीजे औ हठ छोड़ दीजे।

महाराज, जद जरासन्ध ने ऐसे समझायके कहा तद विसे कुछ धीरज हुआ औ जितने घायल जोधा बचे थे तिन्हे साथ ले, अच्छता पछता जरासन्ध के संग हो लिया। ये तो यहाँ से यों हारके चले और जहाँ सिसुपाल का घर था वहाँ की बात सुनो कि पुत्र का आगमन विचार सिसुपाल की मा जो मंगलाचार करने लगी, तो सन्मुख छींक हुई औ दाहिनी आँख उसकी फड़कने