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लगी। यह अशकुन देख विसका माथा ठनका कि इस बीच किसीने आय कहा जो तुम्हारे पुत्र की सब सेना कट गई औ दुलहन भी न मिली, अब वहाँ से भाग अपना जीव लिये आता है। इतनी बात के सुनतेही सिसुपाल की महतारी अति चिन्ता कर अवाक हो रही।

आगे सिसुपाल औ जरासन्ध का भागना सुन, रुक्म अति क्रोध कर अपनी सभा में आन बैठा और सबको सुनाय कहने लगा कि कृष्ण मेरे हाथ से बच कहाँ जा सकता है, अभी जाय विसे मार रुक्मिनी को ले आऊँ तो मेरा नाम रुक्म, नहीं तो फिर कुण्डलपुर में न आऊँ। महाराज, ऐसे पैज कर रुक्म एक अक्षौहिनी दल ले श्रीकृष्णचंद से लड़ने को चढ़ धाया, और उसने यादवो का दल जा घेरा। उस काल विसने अपने लोगो से कहा कि तुम तो यादवो को मारो औ मैं आगे जाय कृष्ण को जीता पकड़ लाता हूँ। इतनी बात के सुनतही उसके साथी तो यदुबंसियो से युद्ध करने लगे कि और वह रथ बढ़ाय श्रीकृष्णचंद के निकट जाय ललकारकर बोला-अरे, कपटी गँवार, तू क्या जाने राज्य ब्यौहार, बालकपन में जैसे तैंने दूध दही की चोरी करी तैसे तूने यहाँ भी आय सुंदरि हरी।

ब्रजबासी हम नही अहीर। ऐसे कहकर लीने तीर॥
विष के बुझे लिये उन बीन! खैंच धनुष सर छोड़े तीन॥

उन बानो को आते देख श्रीकृष्णचंद ने बीचही काटा। फिर रुक्म ने और बान चलाए, प्रभु ने वे भी काट गिराए औ अपना धनुष संभाल कई एक बान ऐसे मारे कि रथ के घोड़ों समेत सारथी उड़ गया और धनुष उसके हाथ से कट नीचे गिरा।

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