पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२१७)


से तो न मारा पर सारथी को सैन करी, उसने झट इसकी पगड़ी उतार टुंडियाँ चढ़ाय, मूँछ दाढ़ी औ सिर मूंड, सात चोटी रख रथ के पीछे बाँध लिया।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, रुक्म को तो श्रीकृष्णजी ने यहाँ यह अवस्था की और बलदेव वहाँ से सब असुर दल को मार भगायकर, भाई के मिलने को ऐसे चले कि जैसे स्वेत गज कँवलदह मे कँवलो को तोड़, खाय, विथराय, अकुलाय के भागता होय। निदान कितनी एक बेर में प्रभु के समीप जाय पहुँचे औ रुक्म को बँधा देख श्रीकृष्णजी से अति झुँझँलायके बोले कि तुमने यह क्या काम किया, जो साले को पकड़ बाँधा, तुम्हारी कुटेव नहीं जाती।

बाँध्यौ याहि करी बुधि थोरी! यह तुम कृष्ण सगाई तोरी!
औ यदुकुल को लीक लगाई। अब हमसो को करहि सगाई॥

जिस समै यह युद्ध करने को आपके सनमुख आया, तब तुमने इसे समझाय बुझाय के उलटा क्यो न फेर दिया। महाराज, ऐसे कह बलरामजीने रुक्म को तो खोल समझाय बुझाय अति शिष्टाचार कर बिदा किया। फिर हाथ जोड़ अति विनती कर बलराम सुखधाम रुक्मिनीजी से कहने लगे कि हे सुंदरि, तुम्हारे भाई की जो यह दशा हुई इसमें कुछ हमारी चूक नहीं, यह उसके पूर्व जन्म के किये कर्म का फल है और क्षत्रियो का धर्म भी है कि भूमि, धन, त्रिया के काज, करते है युद्ध, दल परस्पर साज। इस बात को तुम बिलग मत मानौ, मेरा कहा सच ही जानौ। हार जीत भी उसके साथही लगी है और यह संसार दुख का समुद्र है यहाँ आय सुख कहाँ, पर मनुष्य माया के बस हो दुख सुख