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नहीं छोड़ते। भला रिपु आज बच गया फिर मार लेगे। महाराज, जद यो विसने रुक्म को समझाया तद वह यह कहने लगा कि सुनौ-

हाज्यौ उनसों औ सत गई। मेरे मन अति लज्जा भई॥
जन्म न हो कुंडलतुर जाऊँ। बरन औरही गाँव बसाऊँ॥
मो कह उन इक नगर बसायौ। सुत दारा धन तहाँ मँगायौ॥
ताको धज्यौ भोजकटु नाम। ऐसे रुकम बसायौ गाँम॥

महाराज, उधर रुक्म तो राजा भीष्मक से वैर कर वहाँ रहा औ इधर श्रीकृष्णचंद औ बलदेव जी चले चले द्वारका के निकट आय पहुँचे।

उड़ी रेनु आकाश जु छाई। तबही पुरबासिन सुध पाई।
आवत हरि जाने जबहि, राख्यो नगर बनाय।
शोभा भइ तिहुं लोक की, कही कौन पै जाय॥

उस काल घर घर मंगलाचार हो रहे, द्वार द्वार केले के खंभे गड़े, कंचन कलस सजल सपल्लव धरे, ध्वजा पताका फहराय रही, तोरन बंदनवार बँधी हुई और हर हाट, बाट, चौहटो मे चौमुखे दिये लिए युवतियों के यूथ के यूथ खड़े औ राजा उग्रसेन भी सब यदुबंसियो समेत बाजे गाजे से अगाऊँ जाय रीति भाँति कर, बलराम सुखधाम औ श्रीकृष्णचंद आनंदकंद को नगर में ले आये। उस समै के बनाव की छबि कुछ बरनी नहीं जाती, क्या स्त्री क्या पुरुष सबही के मन में आनंद छाय रहा था। प्रभु के सोही आय आय सब भेट दे दे भेटते थे औ नारियाँ अपने अपने द्वारो, बारों, चौबारो, कोठो पर से मंगली गीत गाय गाय, आरती उतार फूल बरसावती थी औ श्रीकृष्णचंद औ बलदेवजी जथायोग्य सबकी