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मनुहार करते जाते थे, निदान इसी रीति से चले चले राजमंदिर में जा बिराजे। आगे कई एक दिवस पीछे एक दिन श्रीकृष्ण राज सभा में गये, जहाँ राजा उग्रसेन, सूरसेन, बसुदेव आदि सब बड़े बड़े यदुबंसी बैठे थे और प्रणाम कर इन्होंने उनके आगे कहा कि महाराज, युद्ध जीत जो कोई सुंदरि लाता है वही राक्षस ब्याह कहता है।

इतनी बात के सुनते ही इधर सूरसेनजी ने पुरोहित बुलाय, उसे समझाय के कहा कि तुम श्रीकृष्ण के विवाह का दिन टहरा दो। उसने झट पत्र खोल भला महीना, दिन, बार, नक्षत्र देख शुभ सूरज चंद्रमा बिचार ब्याह को दिन ठहराय दिया। तब राजा उग्रसेन ने अपने मंत्रियों को तो यह आज्ञा दी कि तुम ब्याह की सब सामा इकट्ठी करो और आप बैठ पत्र लिख लिख पाँडव कौरव आदि सब देश बिदेश के राजाओ ब्राह्मनों के हाथ भिजवाये। महाराज, चिट्ठी पातेही सब राजा प्रसन्न हो हो उठ धाये। तिन्हो के साथ ब्राह्मन पंडित, भाट, भिखारी भी हो लिये।

और ये समाचार पाय राजा भीष्मक ने भी बहुत वस्त्र, शस्त्र, जड़ाऊ आभूषन औ रथ, हाथी, घोड़े, दास, दासियो के डोले, एक ब्राह्मन को दे, कन्यादान का संकल्प मनही में ले, अति बिनती कर द्वारका को भेज दिया। उधर से तो देस देस के नरेस आये औ इधर से राजा भीष्मक का पठाया सब सामान लिये वह ब्राह्मन भी आया। उस समै की शोभा द्वारका पुरी की कुछ बरनी नहीं जाती। आगे ब्याह का दिन आया तो सब रीति भाँति कर वर कन्या को मँढ़े के नीचे ले जा बैठाया और सब बड़े बड़े यदुबंसी भी आय बैठे। उस बिरियाँ-