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यह समाचार पा जोतिषियों ने आय लग्न साध बसुदेवजी से कहा कि महाराज इस बालक के शुभ ग्रह देख हमारे बिचार में यो आता है कि रूप, गुन, पराक्रम मैं यह श्रीकृष्णचंदजीही के समान होगा पर बालकपन भर जल में रहेगा। पुनि रिपु को मार स्त्री समेत आन मिलेगा। यो कह प्रद्युम्न नाम धर जोतिषी तो दक्षिणी ले बिदा हुए और वसुदेवजी के घर में रीति भाँति औ मंगलाचार होने लगे। आगे श्रीनारद मुनिजी ने जाय उसी समै समझाय संबर से कहा कि तू किस नीद सोता है, तुम चेत है के नहीं। वह बोला-क्या? इन्होने कहा-तेरा बैरी काम का अवतार प्रद्युम्न नाम श्रीकृष्णचंद के घर जन्म ले चुका)

राज्ञा, नारदजी तो संबर को यों चिताय चले गये औ संबर ने सोच विचारकर सनही मन में यह उपाय ठहराया कि पवनरूप हो वहाँ जाय विसे हर लाऊँ औ समुद्र में बहाऊँ, तो मेरे मन की चिता मिटे औ निर्भय हो रहूँ। यह विचार कर संबर वहाँ से उठ अलखरूप हो चला चला श्रीकृष्णचंद के मंदिर में आया कि जहाँ रुक्मिनीजी सोअर में हाथ से दबाये, छाती से लगाये बालक को दूध पिलाती थी औ चुपचाप घात लगाय खड़ा हो रहा है जो बालक पर से रुक्मिनीजी का हाथ अलग हुआ, तों असुर अपनी माया फैलाय उसे उठाय ऐसे ले आया कि जितनी स्त्रियों वहाँ बैठी थी विनमें से किसीने न देखा न जाना कि कौन किस रूप से आय क्यो कर उठाय ले गया। बालक को आगे न देख रुक्मिनीजी अति घबराई औ रोने लगीं। उनके रोने का शब्द सुन सब्र यदुबंसी क्या स्त्री क्या पुरुष धिर आये औं अनेक अनेक प्रकार की बाते कह कह चिंता करने लगे।