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हित से चित लगाय पालने लगी। जो जों वह बालक बढ़ता था तों तो रति को पति के मिलने का चाव होता था। कभी वह उसका रूप देख प्रेम कर हिये से लगाती थी, कभी दृग, सुख, कपोल चूम आप ही बिहँस उसके गले लगती थी और यो कहती थी,

ऐसौ प्रभु संयोग बनायौ। मछरी मांहिं कंत मै पायौ।
औ महाराज,
प्रेम सहित पय ल्याय कै, हित सौं प्यावत ताहि॥
हलरावत गुन गायकै, कहत कंत चित चाहि॥

आगे जब प्रद्युम्नजी पाँच बरस के हुए, तब रति अनेक अनेक भाँति के वस्त्र आभूषन पहनाय पहनाय, अपने मन का साद पूरा करने लगी औ नैनो को सुख देने! उस काल वह बालक जो रति को ऑचल पकड़कर मा मा कहने लगा तो वह हँसकर बोली-हे कंत, तुम यह क्या कहते हो, मैं तुम्हारी नारि, तुम देखो अपने हिये विचार। मुझे पार्वतीजी ने यह कहा था कि तू संबर के घर जाय रह, तेरा कंत श्रीकृष्णचंदजी के घर में जन्म लेगा, सो मछली के पेट में हो तेरे पास आवेगा औं नारदजी भी कह गये थे कि तुम उदास मत हो, तेरा स्वामी तुझे आय मिलता है, तभी से मै तुम्हारे मिलने की आस किये यहाँ बास कर रही हूँ। तुम्हारे आने से मेरी आस पूरी भई।

ऐसे कह रति नै फिर पति को धनुषविद्या सब पढ़ाई। जब वे धनुषविद्या में निपुण हुए, तब एक दिन रति ने पति से कहा कि स्वामी अब यहाँ रहना उचित नहीं, क्योंकि तुम्हारी माता श्रीरुक्मिनीजी ऐसे तुम बिन दुख पाय अकुलाती है, जैसे वच्छ