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बिन गाय। इससे अब उचित यही है कि असुर संबर को मार, मुझे संग ले, द्वारका में चल मात पिता का दरसन कीजे और विन्हें सुख दीजे, जो आपके देखने की लालसा किये हुए है।

श्रीशुकदेवजी यह प्रसंग सुनाय राजा से कहने लगे कि महाराज, इसी रीति से रति की बाते सुनते सुनते प्रद्युम्नुजी जब सयाने हुए तब तक दिन खेलते खेलते राजा संबर के पास गये। वह इन्हें देखतेही अपने लड़के के समान जान लड़ाकर बोला कि इस बालक को मैने अपना लड़का कर पाला है। इतनी बात के सुनतेही प्रद्युम्नजी ने अति क्रोध कर कहा कि मै बालक हूँ बैरी तेरा, अब तू लड़कर देख बल मेरा। यो सुनाय खंम ठोक सनमुख हुआ, तब हँसकर संबर कहने लगा कि भाई, यह मेरे लिए दूसरा प्रद्युम्नजी कहाँ से आया, क्या दूध पिला मैने सर्प बढ़ाया, जो ऐसी बातें करता है। इतना कह फिर बोला-अरे बेटा, तू क्यों कहता है ये बैन, क्या तुझे जमदूत आये है लेन।

महाराज, इतनी बात संबर के मुँह से सुनतेही वह बोला-प्रद्युम्न मेराही है नाम, मुझसे आज तू कर संग्राम मैंने तो था मुझे सागर में, बहाया, पर अब मैं अपना बैर लेने फिर आया। तूने अपने घर में अपना काल बढ़ाया अप, कौन किसका बेटा और किसका बाप।

सुन संबर आयुध गहे, बढ्यौ क्रोध मन भाव॥
मनहु सर्प की पूँछ पर, पड़्यौ अँधेरे पाँव॥

आगे संबर अपना सब दुल मंगवाय, प्रद्युम्न को बाहर ले आय क्रोध कर गदा उठाय, मेथ की भॉति गरजकर बोला-देखूं अब तुझे काल से कौन बचाता है। इतना कहे जो उसने