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निज मन में बिचारा कि यह मनि श्रीकृष्णचंद को लेजाकर दिखाइए तो भला।

यो बिचार मनि कंठ में बाँध सत्राजीत यदुबंसियो की सभा को चला। मनि का प्रकास दूर से देख सब यदुबंसी खड़े हो श्रीकृष्णजी से कहने लगे कि महाराज, तुम्हारे दरसन की अभिलाषा किये सूरज चला आता है, तुमको ब्रह्मा, रुद्र, इंद्रादि सब देवता ध्यावते है औ पाठ पर ध्यान धर तुम्हारा जस गावते हैं। तुम हो आदिपुरुष अविनासी, तुम्हे नित सेवती है कमला मई दासी। तुम हो सब देवो के देव, कोई नहीं जानता तुम्हारा भेव। तुम्हारे गुन श्री चरित्र हैं अपार, क्यौ प्रभु छिपोगे आय संसार। महाराज, जब सत्राजीत को आता देख सब यदुबंसी यो कहने लगे, तब हरि बोले कि यह सूरज नहीं सत्राजीत यादव है। इसने सूरज की तपस्या कर एक मनि पाई है, उसका प्रकाश सूरज के समान है, वही मनि बाँधे वह चला आता है।

महाराज, इतनी बात जब तक श्रीकृष्णजी कहैं तब तक वह आय सभा मे बैठा, जहाँ यादव सारे पासे खेल रहे थे। मनि की कांति देख सबका मन मोहित हुआ औ श्रीकृष्णचंद भी देख रहे, तद सत्राजीत कुछ मनहीं मन समझ उस समय बिदा हो अपने घर गया। आगे वह मनि गले में बाँध*[१] नित आवे। एक दिन सब यदुबंसियो ने हरि से कहा कि महाराज, सत्राजीत से मनि ले राजा उग्रसेन को दीजै औ जग मे जस लीजै, यह मनि इसे नहीं फबती, रा के जोग है।

इस बात के सुनते ही श्रीकृष्णजी ने हँसते हँसते सत्राजीत से


  1. *(क) मे 'बाँध' दो बार आया है।