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कहा कि यह मनि राजाजी को दो और संसार में जस बड़ाई लो। देने का नाम सुनतेही वह प्रनाम कर चुपचाप वहाँ से उठ सोच विचार करता अपने भाई के पास जो बोला कि आज श्रीकृष्णजी ने सुझसे मनि माँगी और मैने न दी। इतनी बात को सत्राजीत के मुँह से निकली तो क्रोध कर उसके भाई प्रसेन ने वह अनि ते अपने गले में डाली औ शस्त्र लगाय घोड़े पर चढ़ अहेर को निकला। महावन में जाय धनुष चढ़ाय लगा साजर, चीतल, पाढे, रीछ औ मृग मारने। इसमें एक हिरन जो उसके आगे से झपटा, तो इसने भी खिलायके विसके पीछे घोड़ा दुपटा औ चला चला अकेला कहाँ पहुँचा कि जहाँ जुगानजुग की एक बड़ी औड़ी गुफा थी।

मृग औ घोड़े के पाँव की आहट पाय उसमें से एक सिह निकला। वह इन तीनों को मार मनि ले फिर उस गुफा में बढ़ गया। मनि के जातेही उस महाअंधेरी गुफा में ऐसा प्रकाश हुआ कि पाताल तक चाँदनी हो गया। वहाँ जामवत *[१] नाम रीछ जो श्रीरामचंद्र के साथ रामावतार में था, सो त्रेतायुग से तहाँ कुटुंब समेत रहा था, वह गुफा में उजाला देख उठ धाया औं चला चला सिह के पास आया। फिर वह सिह को मार मनि ले अपनी स्त्री के निकट गया। विसने मनि ले अपनी पुत्री के पालने में बाँधी। वह विसे देख नित हँस हँस खेला करै औं सारे स्थान में आठ पहर प्रकास रहै। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, मनि यो गई औ असेन की यह गति भई। तब प्रसेन के साथ जो लोग गये थे तिन्होने आ सत्राजीत से कहा कि महाराज,


  1. *(ख) 'जाबुवान'
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