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मनि मांगी और मैने न दी, इससे मेरे जी में आता है कि उसीने मेरे भाई को बन में जाय मारा औ मनि ली। यह उसी का काम है दूसरे की सामर्थ नहीं जो ऐसा काम करे।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बात के सुनतेही उसे रात भर नीद न आई और उसने सात पाँच कर रैन गँवाई। भोर होतेही उसने जा सखी सहेली और दासी से कहा अपने कंत के मुख सुनी है पर तुम किसी के आगे मत कहियो। वे वहाँ से तो भला कह चुपचाप चली आई, पर अचरजकर एकांत बैठ आपस मे चरचा करने लगी, निदान एक दासी ने यह बात श्रीकृष्णचद्र के रनवास मे जा सुनाई। सुनतही सबके जी में आया कि जो सत्राजीत की स्त्री ने यह बात कही है तो झूठ न होगी। ऐसे समझ, उदास हो सब रनवास श्रीकृष्ण को बुरा कहने लगा। इस बीच किसीने आय श्रीकृष्णजी से कहा कि महाराज, तुम्हें तो प्रसेन के मारने औ मनि के लेने का कलंक लग चुका, तुम क्या बैठ रहे हो, कुछ इसका उपाय करो।

इतनी बात के सुनते ही श्रीकृष्णजी पहले तो घबराए, पीछे कुछ सोच समझ वहाँ आए, जहाँ उग्रसेन, बासुदेव औ बलराम सभा मे बैठे थे और बोले कि महाराज, हमे सब लोग यह कलंक लगाते है कि कृष्ण ने प्रसेन को मार मनि ले ली। इससे आपकी याज्ञा ले प्रसेन और मनि के ढूँढ़ने को जाते है, जिससे यह अपजस छूटै। यो कह श्रीकृष्णाजी वहाँ से आय कितने एक यदुबंसियों और प्रसेन के साथियों को साथ ले बन को चले। कितनी एक दूर जाय देखे तो घोड़ो के चरन चिह्न दृष्ट पड़े,