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भी देवी पूज घर आईं और मंगलाचार करने लगीं। इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, श्रीकृष्णजी ने सभा में बैठते ही सत्राजीत को बुला भेजा औ वह मनि देकर कहा कि यह मनि हमने न ली थी, तुमने झूठमूठ हमें कलंक दिया था।

यह मनि जामवंत ही लीनी। सुता समेत मोहि तिन दीनी॥
मनि लै तबहि चल्यो सिरनाय। सत्राजित मन सोचतु जाय॥
हरि अपराध कियो मै भारी। अनजाने दीनी कुलगारी॥
जादौपति को कलंक लगायौ। मनि के काजे बैर बढ़ायो॥
अब यह दोष कटे सो कीजै। सतिभामा मनि कृष्णहि दीजै॥

महाराज, ऐसे मनही मन सोच विचार करता, मनि लिये, मन मारे सत्राजीत अपने घर गया और उसने सब अपने जी का विचर स्त्री से कह सुनाया। विसकी स्त्री बोली-स्वामी, यह बात तुमने अच्छी बिचारी। सतिभामा श्रीकृष्ण को दीजे औ जगत में जस लीजे। इतनी बात के सुनतेही सत्राजीत ने एक ब्राह्मन को बुलाय, शुभलग्न मुहूर्त्त ठहराय, रोली, अक्षत, रुपया, नारियल एक थाली में धर पुरोहित के हाथ श्रीकृष्णचंद के यहाँ टीका भेज दिया। श्रीकृष्णजी बड़ी धूमधाम से मौड़ बाँध व्याहन आए। तब सत्राजीत ने सत्र रीति भॉति कर वेद की विधि से कन्यादान किया और बहुत सा धन दे यौतुक में विस मनि को भी धर दिया।

मनि को देखतेही श्रीकृष्णजी ने उसमें से निकाल बाहर किया और कहा कि यह मनि हमारे किसी काम की नही क्योकि तुमने सूरज की तपस्या कर पाई। हमारे कुल मे श्रीभगवान छुड़ाय और देवता को दी वस्तु नहीं लेते। यह तुम अपने घर मे रक्खौ। महाराज, श्रीकृष्णचंदजी के मुख से इतनी बात