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अठावनवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, मनि के लिये जैसे सतधन्वा सत्राजीत को मार, मनि ले अक्रूर को दे द्वारका छोड़ भागा, तैसे मै कथा कहता हूँ तुम चित्त दे सुनो। एक समै हस्तिनापुर से आय किसीने बलराम सुखधाम श्री श्रीकृष्णचंद आनंदकंद से यह सँदेसा कहा, कि

पंडौ न्यौते अंधसुत, घर के बीच सुवाय।
अद्धेरात्र चहुँ ओर ते, दीनी आग लगाय॥

इतनी बात के सुतते ही दोनो भाई अति दुख पाय, घबराय, ततकाल दारक सारथी से अपना रथ मँगाय, तिसपर चढ़ हस्तिनापुर को गए औ रथ से उतर कौरों की सभा जा खड़े रहे। वहाँ देखते क्या है कि सब तन छीन मन मलीन बैठे है। दुर्योधन मनही मन कुछ सोचता है, भीष्म नैनो से जल मोचता है, धृतराष्ट्र बड़ा दुख करता है, द्रोनाचार्य की भी आँखो से पानी चलता है। विदूरथ जी ही जी पछताय, गँधारी बैठी उसके पास आय, और भी जो कौरो की स्त्रियाँ थी सो भी पाँडवो की सुध कर रो रही थी औ सारी सभा शोकमय हो रही थी। महाराज, वहाँ की यह दसा देख श्रीकृष्ण बलरामजी भी उनके पास जा बैठे औ इन्होने पाँडवो का समाचार पूछा पर किसीने कुछ भेद न कहा, सब चुप हो रहे।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, श्रीकृष्ण बलरामजी तो पाँडवो के जलने के समाचार पाय