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हस्तिनापुर को गये औ द्वारका में सतधन्वा नाम एक यादव था कि जिसे पहले सतिभामा माँगी थी तिसके यहाँ अक्रूर औ कृतवर्मा मिलकर गये और दोनों ने उससे कहा कि हस्तिनापुर को गये श्रीकृष्ण बलराम, अब आय पड़ा है तेरा दाँव सत्राजीत से तू अपना बैर ले, क्योकि विसने तेरी बड़ी चूक की, जो तेरी माँग श्रीकृष्ण को दी औ तुझे गाली चढ़ाई, अब यहाँ उसका कोई नहीं है सहाई। इतनी बात के सुनतेही सत्तधन्वा अति क्रोध कर उठा और रात्र समै सत्राजीत के घर जा ललकारा। निदान छल बल कर उसे मार वह मनि ले आया। तब सतधन्वा अग्ला घर में बैठ कुछ सोच विचार मनही मन पछताय कहने लगा-

मै यह बैर कृष्ण सो कियौ। अक्रूर को मतौ सुन लियौ॥
कृतवर्मा अक्रूर मिल, मतौ दियौ मोहि आय।
साध कहै जो कपट की तासो कहा बसाय॥

महाराज, इधर सतधन्वा तो इस भाँति पछताय, बार बार कहता था कि होनहार से कुछ न बसाय कर्म की गति किसीसे जानी नहीं जाय, और उधर सत्राजीत को मरा निहार, उसकी नारि रो रो कंत कंत कर उठी पुकार। उसके रोने की धुन सुन सब कुटुंब के लोग क्या वो क्या पुरुष अनेक अनेक भाँति की बाते कह कह रोने पीटने लगे औ सारे घर मे कुहराम पड़ गया। पिता का मरना सुन उसी समै आय, सतिभामाजी सबको समझाय बुझाय बाप की लोथ तेल में डलवाय, अपना रथ मँगवाय, तिसपर चढ़ श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के पास चली औ रात दिन के बीच जा पहुँचीं।

देखतेही उठ बोले हरी। घर है कुशल क्षेम सुंदरी॥