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सतिभामा कहि जोरे हाथ। तुम बिन कुशल कहाँ यदुनाथ॥
हमहि बिपत सतधन्वा दई। मेरो पिता हत्यौ मनि लई॥
घरे तेल मे सुसर तिहारे। करौ दूर सब सूल हमारे॥

इतनी बात कह सतिभामाजी श्रीकृष्ण बलदेवजी के सोही खड़ी हो हाय पिता हाय पिता कर धायमार रोने लगी। विनका रोना सुन श्रीकृष्ण बलरामजी ने भी पहले तो अति उदास हो रोकर लोक रीति दिखाई, पीछे सतिभामा को आसा भरोसा दे, ढाढ़स बँधाया वहाँ से साथ ले द्वारका मे आए। श्रीशुकदेवजी बाले कि महाराज, द्वारका में आते ही श्रीकृष्णचंद ने सतिभामा को महादुखी देख प्रतिज्ञा कर कहा कि सुंदर, तुम अपने मन में धीर धरो और किसी बात की चिंता मत करो। जो होना था सो तो हुआ पर अब मै सतधन्वा को मार तुम्हारे पिता का बैर लूँगा, तब मै और काम करूँगा।

महाराज, रामकृष्ण के आते ही सतधन्वा अति भय खाय घर छोड़ मनही मन यह कहता कि पराए कहे मैने श्रीकृष्णाजो से बैर किया, अब सरन किसकी लूँ, कृतबर्मा के पास आया और हाथ जोड़, अति विनती कर बोला कि महाराज, आप के कहे मैंने किया यह काम अब मुझपर कोपे है श्रीकृष्ण औ बलराम। इससे मै भागकर तुम्हारी सरन आया हूँ, मुझे कहीं रहने को ठौर बताइये। सतधन्वा से यह बात सुन कृतवर्मा बोला कि सुनो हमसे कुछ नही हो सकता। जिसका बैर श्रीकृष्णचंद से भया, सो नर सबही से गया। तू क्या नहीं जानता था कि हैं अति बली मुरारि, तिनसे बैर किये होगी हार। किसी के कहे से क्या हुआ, अपना बल बिचार काम क्यों न किया? संसार की रीति है कि बैर, ब्याह