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जलचर, थलचर, जीव, जन्तु, पक्षी औ ढौर लगे व्याकुल हो सूख सूख मरने और पुरबासी मारे भूखो के त्राहि त्राहि करने। निदान सब नगर-निवासी महा ब्याकुल हो निपट घबराये। श्रीकृष्णचंद दुखनिकंद के पास आए औ अति गिड़गिड़ाय अधिक अधीनता कर हाथ जोड़ सिर नाय कहने लगे-

हम तौ सरन तिहारी रहैं। कष्ट महा अब क्योकर सहैं॥
मेघ न बरष्यौ पीड़ा भई। कहा बिधाता ने यह ठई॥

इतना कह फिर कहने लगे कि हे द्वारकानाथ दीनदयाल हमारे तो करता दुखहरता तुम हो, तुम्है छोड़ कहाँ जायँ औ किससे कहैं, यह उपाध बैठे बिठाए मे कहाँ से आई और क्यो हुई सो कृपा कर कहिये।

श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, इतनी बात के सुनते ही श्रीकृष्णचंदजी ने उनसे कहा कि सुनो जिस पुर सै साध जन निकल जाता है, तहाँ आपसे आप काल, दरिद्र, दुख आता है। जब से अक्रूरजी इस नगर से गये हैं तभी से यहाँ यह गति हुई है। जहाँ रहते हैं साध सतवादी औ हरिदास तहाँ होता है अशुभ, अकाल, बिपत का नास। इंद्र रखता है हरिभक्तों से सनेह, इसी लिये उसे नगर में भली भाँति बरसाता है मेह।

इतनी बात के सुनतेही सब यादव बोल उठे कि महाराज, आपने सच कहा। यह बात हमारे भी जी मे आई, क्योकि अक्रूर के पिता को सुफलक नाम है, वह भी बड़ा साध, सतबादी धर्मात्मा है। जहाँ वह रहता है तहाँ कभी दुख दरिद्र औ नही होता है अकाल, सदा समय पर बरसता है मेह तिससे होता हैं सुकाल। और सुनिये कि एक समै काशीपुरी में बड़ा दुरभिक्ष