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दरिद्र बह गया, अक्रूरजी की महिमा हुई, सब द्वारकाबासी आनंद मंगल से रहने लगे। आगे एक दिन श्रीकृष्णचंद आनंदकंद ने अक्रूरजी को निकट बुलाय एकांत ले जायके कहा कि तुमने सत्राजीत की मनि ले क्या की। वह बोला––महाराज, मेरे पास है। फिर प्रभु ने कहा––जिसकी वस्तु तिसे दीजे, औ वह न होय तो विसके पुत्र को सौपिये, पुत्र न होय तो उसकी स्त्री को दीजिये, स्त्री न होय तो उसके भाई को दीजे, भाई न हो तो उसके कुटुंब को सौंपिये, कुटुंब भी न हो तो उसके गुरुपुत्र को दीजे, गुरुपुत्र न हो तो ब्राह्मन को दीजिये, पर किसी को द्रव्य आप न लीजिये, यह न्याय है। इससे अब तुम्हें उचित है कि सत्राजीत की मनि उसके नाती को दो औ जगत में बड़ाई लो।

महाराज, श्रीकृष्णचंद के मुख से इतनी बात के निकलतेही अक्रूरजी ने मनि लाय प्रभु के आगे धर, हाथ जोड़, अति विनती कर कहा कि दीनानाथ, यह मनि आप लीजे औ मेरा अपराध दूर कीजे, क्यौकि जो इस मनि से सोना निकला सो ले मैने तीरथ यात्रा में उठाया है। प्रभु बोले––अच्छा किया। यो कह मनि ले हरि ने सतिभामा को जाय दी औ उसके चित्त की सब चिंता दूर की।