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उनसठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक दिन श्रीकृष्णचंद जगबंधु आनंदकंद जी ने यह विचार किया कि अब चलकर पांडवों को देखिये जो आग से बच जीते जागते हैं। इतनी बात कह हरि कितने एक यदुबंसियों को साथ ले द्वारिकापुरी से चल हस्तिनापुर आए। इनके आने का समाचार पाय, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव पाँचो भाई अति हर्षित हो उठ धाए औ नगर के बाहर आय मिल बड़ी आवभगत कर लिवाय घर ले गये।

घर मे जातेही कुंती औ द्रौपदी ने पहले तो सात सुहागनों को बुलाय, मोतियों का चौक पुरवाय, तिसपर कंचन की चौकी बिछवाय, उसपै श्रीकृष्ण को बिठाय, मंगलाचार करवाय अपने हाथो आरती उतारी। पीछे प्रभु के पाँव धुलवाय, रसोई में ले जाय षट्रस भोजन करवाया। महाराज, जब श्रीकृष्णचंद भोजन कर पान खाने लगे तब-

कुंती ढिग बैठी कहै बात। पिता बंधु पूछत कुशलात॥
नीके सूरसेन बसुदेव। बंधु भतीजे अरु बलदेव॥
तिसमें प्रान हमारो रहै। तुम बिन कौन कष्टदुख दहै॥
जब जब बिपत परी अति भारी। तब तुम रक्षा करी हमारी॥
अहो कृष्ण तुम परदुख हरना। पाँचो बंधु तुम्हारी शरना॥
ज्यो मृगनी बृक झुंड के त्रासा। त्यों ये अंधसुतन के त्रासा॥