पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२५०)

महाराज, जब कुंती यो कह चुकी-

तबहि युधिष्ठिर जोड़े हाथ। तुम हौ प्रभु यादवपतिनाथ॥
तुमको जोगेश्वर नित ध्यावत। शिव विरंच के ध्यान न आवत॥
हमकौं घरही दरसन दीनौ। ऐसो कहा पुन्य हम कीनौ॥
चार मास रहकै सुख देही। बरषा ऋतु बीते घर जैहौ॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इस बात के सुनतेही भक्तहितकारी श्रीबिहारी सबको आसा भरोसा दे वहाँ रहे औ दिन दिन आनंद प्रेम बढ़ाने लगे। एक दिन राजा युधिष्ठिर के साथ श्रीकृष्णचंद, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव को लिये, धनुष बान कर गहे, रथ पर चढ़ बन में अहेर को गये। वहाँ जाय रथ से उतर, फेट बाँध, बाँहे चढ़ाय, सर साध, जंगल झाड़ झाड़ लगे सिंह, बाघ, गेड़े, अरने, साबर, सूकर, हिरन, रोझ मार मार राजा युधिष्ठिर के सनसुख लाय लाय धरने, औ राजा युधिष्ठिर हँस हँस, रीझ रीझ, ले ले, जो जिसका भक्षन था तिसे देने लगे औ हिरन, रीझ, सावर, रसोई में भेजने।

तिस समै श्रीकृष्णचद औ अर्जुन आखेट करते करते कितनी एक दूर सबसे आगे जाय, एक वृक्ष के नीचे खड़े हुए। फिर नदी के तीर जा के दोनों ने जल पिया। इसमें श्रीकृष्णजी देखते क्या हैं कि नदी के तीर एक अति सुंदरी नवजोबना, चाँदमुखी, चंपकबरनी, मृगनयनी, पिकबयनी, गजगमनी, कटिकेहरी, नख सिख से सिंगार किये, अनंगमद पिये, महाछबि लिये अकेली फिरती है, उसे देखतेही हरि चकित थकित हो बोले-

वह को सुंदरि बिहरति अंग! कौऊ नहीं तासु के संग॥
महाराज, इतनी बात प्रसु के मुख से सुन औं विसे देख