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हस्तिनापुर से चल हँसते खेलते कितने एक दिनों मे द्वारकापुरी आ पहुँचे। इनका आना सुन सारे नगर मे आनंद हो गया औ सबका बिरह दुख गया। मात पिता ने पुत्र का मुख देख सुख पाया औ मन का खेद सब गँवाया।

आगे एक दिन श्रीकृष्णजी ने राजा उग्रसेन के पास जाय, कालिदी का भेद सब समझाय के कहा कि महाराज, भानुसुता कालिदी को हम ले आए है, तुम वेद की बिधि से हमारा उसके साथ ब्याह कर दो। यह बात सुन उग्रसेन ने योही मन्त्री को बुलाय आज्ञा दी कि तुम अबही जाय ब्याह की सब सामा लाओ। आज्ञा पाय मन्त्री ने विवाह की सामग्री बात की बात मे सब लाय दी। तिसी समै उग्रसेन बसुदेव ने एक जोतिषी को बुलाय, शुभ दिन ठहराय श्रीकृष्णजी का कालिदी के साथ वेद की विधि से ब्याह किया।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, कालिदी का विवाह तो यो हुआ। अब आगे जैसे मित्र बिदा को हरि लाये औ ब्याहा तैसे कथा कहता हूँ, तुम चित दे सुनौ। सूरसेन की बेटी श्रीकृष्णजी की फूफी तिसका नाम राजधिदेवी, उसकी कन्या मित्रविंदा। जब वह ब्याहन जोग हुई तब उसने स्वयंबर किया। तहाँ सब देस देस के नरेस गुनवान, रूपनिधान, महाजान, बलवान, सूर बीर, अति धीर बनठन के एक से एक अधिक जा इकट्ठे हुए। ये समाचार पाय श्रीकृष्णचंदजी अर्जुन को साथ ले वहाँ गये औ जाके बीचो बीच स्वयंबर के खड़े हुए।

हरषी सुंदरि देखि मुरारि। हार डार मुख रही निहारि॥

महाराज, यह चरित देख सब देस देस के राजा तो लज्जित