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हो मनही मन अनखाने लगे और दुरजोधन ने जाय उसके भाई मित्रसेन से कहा कि बंधु, तुम्हारे मामा का बेटा है हरी, तिसे देख भूली है सुन्दरी। यह लोकविरुद्ध रीति है, इसके होने से जग मे हँसाई होगी, तुम जाय बहन को समझाओ कि कृष्ण को न बरै, नहीं तो सब राजाओं की भीड़ में हँसी होयगी। इतनी बात के सुनतेही मित्रसेन ने जाय, बहन को बुझाय के कहा।

महाराज, भाई की बात सुन समझ जो मित्रबिदा प्रभु के पास से हटकर अलग दूर हो खड़ी हुई तो अर्जुन ने झुककर श्रीकृष्णचंद के कान मे कदी-महाराज, अब आप किसकी कान करते है, बात बिगड़ चुकी, जो कुछ करना हो सो कीजै, बिलंब न करिये। अर्जुन की बात सुनतेही श्रीकृष्णजी ने स्वयंवर के बीच से झट हाथ पकड़ मित्रजिन्दा को उठाय रथ में बैठाय लिया औ वोही सबके देखते रथ हाँक दिया। उस काल सब भूपाल तो अपने अपने शस्त्र ले ले घोड़ों पर चढ़ चढ़ प्रभु का आगा घेर लड़ने को जा खड़े रहे ओ नगरनिवासी लोग हँस हँस तालियाँ बजाय बजाय, गालियाँ दे दे यो कहने लगे।

फुफूसुता कौ ब्याहन आयौ। यह ते कृष्ण भलौ जस पायो।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जब श्रीकृष्णचंदजी ने देखा कि चारों ओर से जो असुरदुल घिर आया है सो लड़े बिन न रहेगा, तब विन्होने कै एक बान निखंग से निकाल धनुष तान ऐसे सारे कि वह सब सेना असुरों की छितीछान हो वहाँ की वहाँ बिलाय गई औ प्रभु निर्द्वंद् आनंद से द्वारका पहुँचे।

श्रीशुकदेवजी बोले-महाराज, श्रीकृष्णजी ने मित्रविदा को