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तो यों ले जाय द्वारका में ब्याहा। अब आगे जैसे सत्या को प्रभु लाये सो कथा कहता हूँ तुम मन लगाये सुनौं। कौसल देस में नगनजित नाम नरेस तिसकी कन्या सुया। जब वह ब्याहन जोग हुई तब राजा ने सात बैल अति ऊँचे भयावने बिन नाथे मँगवाय, यह प्रतिज्ञा कर देस में छुड़वाय दिये कि जो इन सातो बृषभो को एक बार नाथ लावेगा उसे मैं अपनी कन्या ब्याहूँगा। महाराज, वे सात बैल सिर झुकाए, पूँछ उठाए, भौ खूंद खूंद डकारते फिरै और जिसे पाबै तिने हनैं।

आगे ये समाचार पाय श्रीकृष्णचंद अर्जुन को साथ ले वहाँ गये औ जा राजा नगनजित के सनमुख खड़े हुए। इनको देखतेही राजा सिंहासन से उतर, अष्टांग प्रनाम कर, इन्हें सिहासन पर बिठाय, चंदन, अक्षत, पुष्प चढ़ाय, धूप, दीप कर, नैवेद्य आगे धर, हाथ जोड़ सिर नाय, अति बिनती कर बोला कि आज मेरे भाग जागे जो शिव बिरंच के करता प्रभु मेरे घर आये। यो सुनाय फिर बोला कि महाराज, मैने एक प्रतिज्ञा की है सो पूरी होनी कठिन थी, पर अब मुझे निहचै हुआ कि वह आपकी कृपा से तुरन्त पूरी होगी। प्रभु बोले कि ऐसी का प्रतिज्ञा तूने की है। कि जिसका होना कठिन है, वह। राजा ने कहा-कृपानाथ, मैने सात बैल अननाथे छुड़वाय यह प्रतिज्ञा की है कि जो इन सातो बैल को एक बेर नाथेगा, तिसे मैं अपनी कन्या ब्याहूँगा। श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज,

सुन हरि फैंट बाँध तहँ गए। सात रूप धर ठाई भए॥
काहु न लख्यौ अलख व्यौहार। सातो नाथे एकहि बार॥

वे व्रषभ, नाथ के नाथने के समय ऐसे खड़े रहे कि जैसे