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साठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि हे राजा, एक समय पृथ्वी मनुष तन धारन कर अति कठिन तप करने लगी। तहाँ ब्रह्मा विष्णु, रुद्र इन तीनो देवताओ ने आ विससे पूछा कि तू किस लिये इतनी कठिन तपस्या करती है। धरती बोली-कृपासिन्धु, मुझे पुत्र की वासना है इस कारन महातप करती हूं, दया कर मुझे एक पुत्र अति बलवंत महाप्रतापी बड़ा तेजस्वी दो, ऐसा कि जिसका साम्हना संसार में कोई न करे, न वह किसीके हाथ से सरै।

यह बचन सुन प्रसन्न हो तीनो देवताओं ने बर दे उसे कहा कि तेरा सुत नरकासुर नाम अति बली महाप्रतापी होगा, उससे लड़ कोई न जीतेगा, वह सृष्टि के सब राजाओ को जीत अपने बस करेगा स्वर्गलोक में जाय देवताओ को मार भगाय, अदिति के कुण्डल छीन आप पहनेगा और इंद्र का छत्र छिनाय लाय अपने सिर धरेगा, संसार के राजाओं की कन्या सोलह सहस्र एक सौ लाय अनब्याही घेर रक्खेगा। तब श्री कृष्णचंद सब अपना कटक ले उसपर चढ़ जायँगे और उनसे तू कहैगी इसे मारो, पुनि वे मार सब राजकन्याओं को ले द्वारका पुरी पधारैगे।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, तीनो देवताओ ने बर दे जब यो कहा तब भूमि इतना कह चुप हो रही कि मैं ऐसी बात क्यों कहूँगी कि मेरे बेटे को मारो। आगे कितने एक दिन पीछे भूमिपुत्र भौमासुर हुआ, तिसीका नाम नरकासुर भी कहते हैं। वह प्रागुजोतिषपुर