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में रहने लगा। उस पुर के चारों ओर पहाड़ो की ओट और जल, अग्नि, पवन का कोट बनाय, सारे संसार के राजाओं की कन्या बलकर छीन छीन, धाय समेत लाय लाय उसने वहाँ रक्खीं। नित उठ उन सोलह सहस्त्र एक सौ राजकन्याओं के खाने ने पहरने की चौकसी वह किया करे और बड़े अन्न से उन्हें पलवावे।

एक दिन भौमासुर अति कोप कर पुष्पविमान में बैठ, जो लंका से लाया था, सुरपुर में गयी और लगा देवताओं को सताने। जिसके दुख से देवता स्थान छोड़ छोड़ अपनी जीव ले ले जिधर तिधर भाग गये, तब वह अदिति के कुंडल औ इन्द्र का छत्र छीन लाया। आगे सब सृष्टि के सुर, नर, मुनियों को अति दुख देने लगा। विसका आचरन सुन श्रीकृष्णचंद्र जगबंधु जी ने अपने जी में कहा-

वाहि मार सुंदरि सब ल्याऊँ। सुरपति छत्र तही पहुँचाऊँ॥
जाय अदिति के कुण्डल दैहौं। निर्भय रोज इन्द्र को कैहौ॥

इतना कह पुनि श्रीकृष्णचंद्रजी ने सतिभामा से कहा कि हे नारि, तू मेरे साथ चले तो भौमासुर मारा जाय, क्योकि तू भूमि का अंस है, इस लेखे उसकी माँ हुई। जब देवताओं ने भूमि को पुत्र का बर दिया था तब यह कह दिया था कि जब से मारने को कहेगी तद तेरा पुत्र मरेगा, नहीं तो किसीसे किसी भाँति मारा न मरेगा। इस बात के सुनतेही सतिभामाजी कुछ मनही मन सोच समझ इतना कह अनमनी हो रही कि महाराज, मेरा पुत्र आपको सुत हुआ तुम उसे क्यौकर मारोगे।