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प्रभु ने इस बात को टाल कहा कि उसके मारने की तो मुझे कुछ इतनी चिन्ता नहीं पर एक समै मैने तुन्हें बचन दिया था जिसे पूरा किया चाहता हूँ। सतिभामा बोली-सो क्या। प्रभु कहने लगे कि एक समय नारदजी ने आय मुझे कल्पवृक्ष का फूल दिया, वह ले मैंने रुक्मिनी को भेजा। यह बात सुन तू रिसाय रही तब मैने यह प्रतिज्ञा करी कि तू उदास मत हो मैं तुझे कल्पवृक्षही ला दूँगा, सो अपना बचन प्रतिपालने को और तुझे बैकुण्ठ दिखाने को साथ ले चलता हूँ।

इतनी बात के सुनतेही सतिभामाजी प्रसन्न हो हरि के साथ चलने को उपस्थित हुइ, तब प्रभु उसे गरुड़ पर अपने पीछे बैठाय साथ ले चले। कितनी एक दूर जाय श्रीकृष्णचंदजी ने सतिभामा जी से पूछा कि सच कह सुंदरि, इस बात को सुन तू पहले क्या समझ अप्रसन्न हुई थी, उसका भेद मुझे समझायके कह जो मेरे सन का सन्देह जाय। सतिभामा बोली कि महाराज, तुम भौमासुर को मार सोलह सहस्र एक सौ राजकन्या लाओगे तिनमें मुझे भी गिनोगे, यह समझ अनमनी हुई थी।

श्रीकृष्णचंद बोले कि तू किसी बात की चिन्ता मत कर मैं कल्पवृक्ष लाय तेरे घर में रक्खूँगा और तू विसके साथ मुझे नारद मुनि का द न कीजो, फिर मोल ले मुझे अपने पास रखना मैं तेरे सदा अधीन रहूँगा। ऐसेही इन्द्रानी ने इन्द्र को वृक्ष के साथ दान दिया था औ अदिति ने कश्यप को। इस दान के करने से कोई नारी तेरी समान मेरे न होगी। महाराज, इसी भाँति की बाते कहते कहते श्रीकृष्णजी प्रागजोतिषपुर के निकट जा पहुँचे। वहाँ पहाड़ का कोट, अग्नि, जल, पवन की प्रोट देखतेही प्रभु ने