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द्विदलात्मक स्वरूपविचार, गार्थ भाषा, गोसाईंजी के स्वरूप के चितन को भाव, कृष्णावतार स्वरूप निर्णय, सातो स्वरूप को भावना और वल्लभाचार्यजी के स्वरूप को चितन भाव।
उदा०-

'और जो गुसाईजी कही जो कृष्णदास ने तीन बस्तु अच्छी कीनी। जो एक तो श्रीनाथजी को अधिकार कियों सो ऐसो कियौ जो कोई दूसरो कोई न करैगो। और दूसरे कीर्तन किए सो अति अद्भुत किए जो कोई न करैगो। सो ताते वे कृष्ण श्रीआचार्य जी महाप्रभून के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हते।'

अज्ञात

महापभु वल्लभाचार्य जो से कुंमनदास जी को संबोधित कर पुष्टि मार्ग के सिद्धांत अथात् युगल मूर्ति की सेवा-विधि कहलाई गई है। इसका रचना-काल अनुमानतः अष्टछाप ही का हो सकता है । हस्तलिखित प्रति मैं रचना तथा विधि दोनो का समय नहीं दिया है।

उदा०--

तब सब वैष्णवन की आज्ञा ले के कुंभनदास श्रीमहाप्रभुजी सों पूछन लागे 'हो महाप्रमुजी हमको धर्म को स्वरूप-सिद्धांत कहो जाते श्रीठाकुर जी की सेवा निर्विघ्नता सो सेविये । आचार क्रिया कहो, देसकाल कहो, लौकिक व्योहार कहो।

प्रेमदास

यह श्रीहित-हरिवंशजी के शिष्य हरिराम जी व्यास के शिष्य थे। इन्होने 'हित चौरासी की गद्य मे विस्तृत टीका लिखी है।