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यह बात सुन श्रीकृष्णचंद ने विन्हें इतना कह कि हमने तुम्हारे साथ ले चलने को रथ पालकियों मँगावे हैं, सुभगदंत की ओर देखा। सुभगदंत प्रभु के मन का कारण समझ अपनी राजधानी में जाय, हाथी घोड़े सजवाय, घुड़बहल औ रथ झमझमाते जगमगाते जुतवाय, सुखपाल, पालकी, नालकी, डोली, चंडोल, झलाबोर के कसवाय लिवाय लाया। हरि देखते ही सब राजकन्याओ को उनपर चढ़ने की आज्ञा दे, सुभगदंत को साथ ले राजमंदिर में जाय, उसे राजगादी पर बिठाय, राजतिलक विसे निज हाथ से दे, आप बिदा ले जिस काल सब राजकन्याओ को साथ लिए वहाँ से द्वारका को चले तिस समै की सोभा कुछ बरनी नहीं जाती, कि हाथी बैलो की झलाबोर गंगा जमुनी झूलो की चमक और घोड़ो की पाखरो की दमक औ सुखपाल, पालकी, मालकी, डोली, चडोल, रथ, घुडबहलो के घटाटोपो की ओप औ उनकी मोतियो की झालरो की जात सूरज की जीत से मिल एक हो जगमगाय रही थी।

आगे श्रीकृष्णचंद सब राजकन्याओं को लिए कितने दिन मे चले चले द्वारकापुरी पहुँचे। वहाँ जाय राजकन्याओ को राजमंदिर में रख, राजा उग्रसेन के पास जाय प्रनाम कर पहले तो श्रीकृष्ण जी ने भौमासुर के मारने और राजकन्याओ के छुड़ाय लाने का सब भेद कह सुनाया। फिर राजा उग्रसेन से बिदा होय प्रभु सतिभामा को साथ ले, छत्र कुडल लिये गरुड़ पर बैठ बैकुंठ को गये। तहाँ पहुँचते ही-

कुँडल दिये अदिति के ईस। छत्र धर्यो सुरपति के सीस॥

यह समाचार पाय वहाँ नारद आया, तिससे हरि ने कह