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यह बात सुन नारदजी ने आय श्रीकृष्णचन्द से इंद्र की बात कही। कह सुनाय के कहा-महाराज, कल्पतरु इंद्र तो देता था पर इंद्रानी ने न देने दिया। इस बात के सुनतेही श्रीमुरारी गर्वप्रहारी नंदनवन में जाय, रखवालो को मार भगाय, कल्पवृक्ष को उठाय, गरुड़ पर धर ले आये। उस काल वे रखवाले जो प्रभु के हाथ की मार खाय भागे थे, इंद्र के पास जाय पुकारे। कल्पतर के ले जाने के समाचार पाय महाराज, राजा इंदु अति कोप कर वज्र हाथ मे ले, सब देवताओ को बुलाय, ऐरावत हाथी पर चढ़, श्रीकृष्णचंदजी से युद्ध करने को उपस्थित हुआ।

फिर नारद मुनि जी ने जाय इंद्र से कहा-राजा, तू महा मूर्ख है जो स्त्री के कहे भगवान से लड़ने को उपस्थित हुआ है। ऐसी बात कहते तुझे लाज नहीं आती। जो तुझे लड़नाही था तो जब भौमासुर तेरा छत्र श्री अदिति के कुंडल छिनाय ले गया तब क्यो न लड़ा। अब प्रभु ने भौमासुर को मार कुंडल औ छत्र ला दिया, तो तू उन्हीं से लड़ने लगा। जो तू ऐसा ही बलवान था तो भौमासुर से क्यो न लड़ा। तू वह दिन भूल गया जो ब्रज में जाय प्रभु की अति दीनता कर अपना अपराध क्षमा कराय आया, फिर उन्ही से लड़ने चला है। महाराज, नारद के मुख से इतनी बात सुनतेही राजा इंद्र जों युद्ध करने को उपस्थित हुआ तो अछताय पछताय लज्जित हो मन मार रह गया ।

आगे श्रीकृष्णचंद द्वारका पधारे, तव हरषित भये देख हरि को यादव सारे। प्रभु ने सतिभामा के मदिर मैं कल्पवृक्ष ले जाय के रक्खा औ राजा उग्रसेन ने सोलह सहस्र एक सौ जो राजकन्या अनब्याही थीं, सो सब देव रीति से श्रीकृष्णचंद को ब्याही।