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एकसठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, एक समै मनिमय कंचन के मंदिर में कुन्दन का जड़ाऊ छपरखट बिछा था, तिसपर फेन से बिछोने फूलो से सँवारे, कपोलगेडुआ औ ओसीसे समेत सुगंध से महक रहे थे। करपूर, गुलाबनीर, चोआ, चंदन, अरगजा सेज के चारो ओर पात्रो मे भग था। अनेक अनेक प्रकार के चित्र विचित्र*[१] चारो ओर भीतो पर खिचे हुए थे। आलो मे जहाँ तहाँ फूल, फल पकवान, पाक घरे थे और सब सुख का सामान जो चाहिये सो उपस्थित था।

झलाबोर का घाघरी धूमधूमाला तिसपर सच्चे मोती टँके हुए, चमचमाती अँगिया, झलझलाती सारी औ जगमगाती ओढ़नी पहने ओढ़े नख सिख से सिंगार किये, रोली की आड़ दिये, बड़े बड़े मोतियों की नथ, सीसफूल, करनफूल, माँग, टीका, ढेढी, बंदी, चंद्रहार, मोहनमाल, धुकधुकी, पंचलडी, सतलड़ी, मुक्तमाल, दुहरे तिहरे नौरतन औ भुजबंध, कंकन, पहुँची, नौगरी, चूड़ी, छाप, छल्ले, किंकिनी, अनवट, बिछुए, जेहर आदि सब आभूषन रतनजटित पहन चंदबदनी, चंपकबरनी, मृगनयनी, गजगमनी, कटिकेहरी श्रीरुक्मनीजी औ मेघबरन, चंदमुख, कंवलनैन, मोरमुकुट दिये, बनमाल हिये, पीतांबर पहरे, पीतपट ओढे, रूपसागर, त्रिभुवन उजागर श्रीकृष्णचंद आनदकंद तहाँ,


  1. * (क) में "बित्र" है।