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विराजते थे औ आपस में परसपर सुख लेते देते थे कि एकाएकी लेटे लेटे श्रीकृष्णजी ने रुक्मिनी से कहा कि सुन सुंदरी, एक बात मैं तुझसे पूछता हूँ, तू उसका उत्तर मुझे दे कि तू तो महा सुंदरी सब गुनसंयुक्त औ राजा भीष्मक की पुत्री, और महाबली बड़ा प्रतापी राजा सिसुपाल चंदेरी का राजा ऐसा, कि जिनके घर सात पीढ़ी से राज आता है औ हम उन के त्रास से भागे फिरते है औ मथुरापुरी तज समुद्र में जाय बसे हैं उन्हीं के भय से, ऐसे राजा को तुम्है तुम्हारे मात पिता भाई देते थे औ वह बरात ले ब्याहने को भी आ चुका था, तिसे न बर तुमने कुल की मर्याद छोड़ संसार की लाज श्री मात पिता बंधु की संका तज हमे ब्राह्मन के हाथ बुला भेजा।

तुम्हरे जोग न हम परबीन। भूपति नाहिं रूप गुन हीन॥
काहू जाचक कीरत करी। सो तुम सुनकै सन मैं धरी॥
कटक साज नृप ब्याहन पायौ। तब तुम हम को बोल पठायौ॥
आय उपाध बनी ही भारी। क्यौंहूँ के पति रही हमारी॥
तिनके देखत तुमको लाए। दल हलधर उनके बिचराए॥
तुम लिख भेजी ही यह बानी। सिसुपाल ते छुड़ावौ आनी॥
सो परतज्ञा रही तिहारी। कछू न इच्छा हुती हमारी॥
अजहूँ कछू न गयौ तिहारौ। सुंदरि मानहु बचन हमारौ॥

कि जो कोई भूपति कुलीन, गुनी, बली तुम्हारे जोग होय तुम तिसके पास जा रहौ। महाराज, इतनी बात के सुनतेही श्री रुक्मिनीजी भयचक हो भहराय पछाड़ खाय भूमि पर गिरौं औ जल बिन मीन की भाँति तड़फड़ाय अचेत हो लगीं उर्द्धसांस लेने। तिस काल,