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इहि छबि मुख अलकावली, रही लपट इक संग।
मानहुँ ससि भूतल पर्यौ, पीवत अभी भुअंग॥

यह चरित्र देख इतना कह श्रीकृष्णचंद घबराकर उठे कि यह तो अभी प्रान तजती है, औ चतुर्भुज हो उसके निकट जाय, दो हाथों से पकड़ उठाय, गोद में बैठाय एक हाथ से पंखा करने लगे औ एक हाथ से अलक सँवारने। महाराज, उस काल नंदलाल प्रेम बस हो अनेक चेष्टा करने लगे। कभी पीताम्बर से प्यारी का चंदमुख पोछते थे, कभी कोमल कमल सा अपना हाथ उसके हृदै पर रखते थे। निदान कितनी एक बेर में श्री रुक्मिनी जी के जीमें जी आया तब हरि बोले-

तही सुंदरि प्रेम गँभीर। तैं मन कछू न राखी धीर॥
तैं मन जान्यौ साँचे छाड़ी। हमने हँसी प्रेम की माड़ी॥
अब तू सुंदरि देह सँभार। प्रान ठौरकै नैन उघार॥
जौलौ तू बोलत नहिं प्यारी। तौलौ हम दुख पावत भारी॥
चेती वचन सुनत पिय नारी। चितई वारिज नयन उघारी॥
देखी कृष्ण गोद में लिये। भई लाज अति सकुची हिये॥
अरबराय उठ ठाढ़ी भई। हाथ जोरि पायन परि रही॥
बोले कृष्ण पीठ कर देत। भली भली जू प्रेम अचेत॥

हमने हाँसी ठानी सो तुमने सच ही जानी। हँसी की बात मे क्रोध करना उचित नहीं। उठो अब क्रोध दूर करो औ मन का शोक हरो। महाराज, इतनी बात के सुनतेही श्रीरुक्मिनीजी उठ हाथ जोड़ सिर नाय कहने लगी कि महाराज, आपने जो कहा कि हम तुम्हारे जोग नहीं सो सच कहा, क्योंकि तुम लक्ष्मीपति, शिव बिरंच के ईस, तुम्हारी समता का त्रिलोकी में कौन है, हे