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जगदीश। तुम्हैं छोड़ जो जन और को धावैं, सो ऐसे है जैसे कोई हरिजस छोड़ गीधगुन गावै। महाराज, आपने जो कहा कि तुम किस महाबली राजा को देखो सो तुमसे अति बली औ बड़ा राजा त्रिभुवन में कौन है सो कहो?

ब्रह्मा रुद्र इंद्रादि सब देवता बरदाई तो तुम्हारे आज्ञाकारी हैं, तुम्हारी कृपा से वे जिसे चाहते है तिसे महाबली, प्रतापी, जपी, तेजस्वी बर दे बनाते है और जो लोग आपकी सैकड़ो बरस अति कठिन तपस्या करते है, सो राजपद पाते हैं। फिर तुम्हारा भजन, ध्यान, जप, तप भूल नीति छोड़ अनीति करते हैं, तब वे आप से आप ही अपना सरबस खोय भ्रष्ट होते हैं। कृपानाथ, तुम्हारी तो सदा यह रीति है कि अपने भक्तो के हेतु संसार में आये बार बार औतार लेते हो औ दुष्ट राक्षसों को मार पृथ्वी का भार उतार निज जनो को सुख दे कृतारथ करते हौ।

औ नाथ, जिसपर तुम्हारी बड़ी दया होती है और वह धन, राज, जोबन, रूप प्रभुता पाय जब अभिमान से अंधा हो धर्म कर्म, तप, सुत, दया, पूजा, भजन भूलता है तब तुम उसे दरिद्री बनाते हो, क्यौंकि दरिद्री सदाही तुम्हारा ध्यान सुमरन किया करता है, इसीसे तुम्हें दरिद्री भाता है। जिसपर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी सो सदा निर्धन रहेगा! महाराज इतना कह फिर रुक्मिनीजी बोली कि हे प्राननाथ, जैसा काशीपुर के राजा इंद्रदवन की बेटी अंबा ने किया, तैसा मै न करूंगी कि वह पति को छोड़ राजा भीषस के पास गई और जब उसने इसे न रक्खा तब फिर अपने पति के पास आई। पुनि पति ने उसे निकाल दिया, तद् उन्ने गंगा तीर में बैठ महादेव का बड़ा तप किया। वहाँ