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रुक्म ने अपनी स्त्री से कहा कि अब मै अपनी कन्या चारुमती जो कृतवर्मा के बेटे को माँगी है, विसे न दूंगा, स्वयंबर करूँगा, तुम किसी को भेज मेरी बहन रुक्मिनी को पुत्र समेत बुलवा भेजो।

इतनी बात के सुनतेही रुक्म की नारी ने अति विनती कर ननद को पत्र लिख पुत्र समेत बुलाबाया एक ब्राह्मण के हाथ औ स्वयंबर किया। भाई भौजाई की चिट्ठी पातेही रुक्मिनीजी श्रीकृष्णचंदजी से आज्ञा ले विदा हो पुत्र सहित चली चली द्वारका से भोजकट में भाई के घर पहुँचीं।

देख रुक्म ने अति सुख पायौ। आदर कर नीचौ सिर नायौ॥
पायन पर बोली भौजाई। हरन भयौ तब से अब आई॥

यह कह फिर उसने रुक्मिनीजी से कहा कि ननद जो तुम आई हो तो हम पर दया भया कीजे और इस चारुमती कन्या को अपने पुत्र के लिये लीजे। इस बात को सुनतेही रुक्मिनीजी बोलीं कि भौजाई, तुम पति की गति जानती हो, मत किसीसे कलह करवाओ, भैया की बात कुछ कही नही जाती, क्या जानिये किस समय क्या करें, इससे कोई बात कहते करते भय लगता है। रुक्म बोला कि बहन, अब तुम किसी भांति न डरो, कुछ उपाध न होगी बेद की आज्ञा है कि दक्षिन देस मै कन्यादान भानजे को दीजे, इस कारन मै अपनी पुत्री चारुमती तुम्हारे पुत्र प्रद्युम्न को दूंगा, श्रीकृष्णजी से बैर भाव छोड़ नया संबंध करूँगा।

महाराज इतना कह जब रुक्म वहाँ से उठ सभा में गया, तबै प्रद्युम्नजी भी माता से आज्ञा ले, अनठन कर स्वयंबर के बीच गये तो क्या देखते हैं कि देस देस के नरेस भांति भांति के बस्त्र,