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शस्त्र, आभूषन पहने बांधे, बनाव किये, विवाह की अभिलाषा हिये में लिये सब खड़े हैं। और वह कन्या जैमाल कर लिये, चारो ओर दृष्टि किये बीच में फिरती है पर किसी पै दृष्ट उसकी नहीं ठहरती। इसमें जो प्रद्युम्नजी स्वयंबर के बीच गये तो देखतेही उस कन्या ने मोहित हो आ इनके गले में जैमाल डाली। सब राजा अछताय पछताय मुँह देखते अपना मुँह लिये खड़े रह गये और अपने मनही मन कहने लगे कि भला देखें हमारे आगे से इस कन्या को कैसे ले जायगा, हम बाटही में छीन लेगे।

महाराज, सब राजा तो यों कह रहे थे और रुक्म ने बर कन्या को मढ़े के नीचे ले जाय, बेद की विधि से संकल्प कर कन्यादान किया और उसके यौतुक में बहुतही धन द्रव्य दिया कि जिसका कुछ वारापार नहीं। आगे श्रीरुक्मिनीजी पुत्र को ब्याह भाई भौजाई से विदा हो बेटे बहू को ले रथ पर चढ़ जो द्वारका पुरी को चलीं, तो राजाओं ने आय मारग रोका, इसलिये कि प्रद्युम्न जी से लड़ कन्या को छीन ले।

उनकी यह कुमति देख प्रद्युम्नजी भी अपने अस्त्र शस्त्र ले युद्ध करने को उपस्थित हुए, कितनी बेर तक इनसे उनसे युद्ध रहा। निदान प्रद्युम्नजी उन सबों को मार भगाय आनंद मंगल से द्वारका पुरी पहुँचे। इनके पहुँचने के समाचार पाय सब कुटुंब के लोग या स्त्री या पुरुष पुरी के बाहर आय, रीति भाँति कर पाटंबर के पाँवड़े डालते बाजे गाजे से इन्हें ले गये। सारे नगर में मंगल हुआ औ ये राजमंदिर में सुख से रहने लगे।

इतनी कथा सुनाय श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा-महाराज, कई बरष पीछे श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के पुत्र प्रद्युम्नज़ी