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तिरसठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, अब जो श्रीद्वारकानाथ का बल पाऊँ, तो ऊषाहरण की कथा सब गाऊँ। जैसे उसने रात्र समै सपने में अनरुद्धजी को देखा औ आशक्त हो खेद किया पुनि चित्ररेखा ने ज्यो अनरुद्ध को लाय ऊषा से मिलाया, तैसे मै सब प्रसंग कहता हूँ तुम मन दे सुनौ। ब्रह्मा के बंस में पहले कस्यप हुआ। तिसका पुत्र हिरनकस्यप अतिबली महाप्रतापी औ अमर भया। उसका सुत हरिजन प्रभुभक्त पहलाद नाम हुआ, विसका बेटा राजा विरोचन, विरोचन का राजा बलि, जिसका जस धर्म धरनी में अब तक छाय रहा है, कि प्रभु ने बावन अवतार ले राजा बलि को छल पाताल पठाया। उस बलि का ज्येष्ठ पुत्र महापराक्रमी बड़ा तेजस्वी बानासुर हुआ। वह श्रोनितपुर मे बसे, नित प्रति कैलास में जाय शिव की पूजा करै, ब्रह्मचर्य पालै, सत्य बोले, जितेन्द्रिय रहै। महाराज, एक दिन बानासुर कैलास में जाय हर की पूजा कर प्रेम में आय लगा मगन हो मृदंग बजाय बजाय नाचने गाने। उसका गाना बजाना सुन श्रीमहादेव भोलानाथ मगन हो लगे पार्वतीजी को साथ ले नाचने औ डमरू बजाने। निदान नाचते नाचते शंकर ने अति सुख पाय प्रसन्न हो, बानासुर को निकट बुलाय के कहा-पुत्र, मै तुझपर सन्तुष्ट हुआ, बर माँग, जो तू बर मांगेगा सो मै दूँगा।

ते कर बाजे भले बजाए। सुनत श्रवन मेरे मन भाए॥

इतनी बात के सुनतेही महाराजा, धानासुर हाथ जोड़ सिर