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नाय अति दीनता कर बोला कि कृपानाथ, जो आपने मेरे पर कृपा की तो पहले अमर कर सब पृथ्वी का राज दीजे, पीछे मुझे ऐसा बली कीजे कि कोई सुझसे न जीते। महादेवजी बोले कि मैने तुझे यही बर दिया औ सब भय से निर्भय किया। त्रिभुवन मे तेरे बल को कोई न पायगा औ विधाता का भी कुछ तुझ पर बस न चलेगा।

बाजौ भले बजाय कै, दियौ परम सुख मोहि।
मै अति हिय आनंद कर, दिये सहस भुज तोहि॥
अब तू घर जाय निचिताई से बैठ अविचल राज करे।

महाराज, इतना बचन भोलानाथ के मुख से सुन, सहस्र भुज पाय, बानासुर अति प्रसन्न हो परिक्रमा दे, सिर नाय, विदा होय आज्ञा ले श्रोनितपुर में आया। आगे त्रिलोकी को जीत, सब देवताओ को बस कर, नगर के चारो ओर जल की चुआन चौड़ी खाई औ अग्नि पवन का कोट बनाय निर्भय हो सुख से राज करने लगा। कितने एक दिन पीछे-

लरवे बिन भइ भुज सबल, फरकहिं अति सहिराँय।
कहत बान कासो लरें, कापर अब चढ़ि जाँय॥
भाई खाज लरवे बिन भारी। को पुजवै हिय हबस हमारी॥

इतना कह बानासुर घर से बाहर जाय, लगा पहाड़ उठाय उठाय, तोड़ तोड़ चूर करने औ देस देस फिरने। जब सब पर्वत फोड़ चुका भी उसके हाथों की सुरसुराहट खुजलाहट न गई, तब-

कहत बान अब कासो लरौं। इतनी भुजा कहा लै करौ॥
सबल भार मैं कैसे सहौ। बहुरि जाय के हर सो कहौं॥

महाराज, ऐसे मन ही मन सोच विचार कर बानासुर महा-