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देवजी के सनमुख जा, हाथ जोड़, सिर नाय, बोला कि हे त्रिशूलपानि त्रिलोकीनाथ, तुमने कृपा कर जो सहस्र भुजा दी, सो मेरे शरीर पर भारी भई। उनका बल अब मुझसे सँभाला नही जाता। इसका कुछ उपाय कीजे, कोई महाबली युद्ध करने को मुझे बताये दीजे। मै त्रिभुवन में ऐसा पराक्रमी किसूको नही देखता जो मेरे सनमुख हो युद्ध करे। हाँ दयाकर जैसे आपने मुझे महाबली किया, तैसेही अब कृपा कर मुझ से लड़ मेरे मन का अभिलाष पूरा कीजे तो कीजे, नहीं तो और किसी अति बली को बता दीजे, जिससे मैं जाकर युद्ध करूँ और अपने मन का शोक हरूँ।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बानासुर से इस भाँति की बाते सुन श्रीमहादेवजी ने बलखाथ मन ही मन इतना कहा कि मैंने तो इसे साध जानके बर दिया, अब यह मुझसे लड़ने फो उपस्थित हुआ। इस मूरख को बल का गर्व भया, यह जीती न बचेगा। जिसने अहंकार किया स जगत में आय बहुत न जिया। ऐसे मन ही मन महादेवजी कह बोले कि बानासुर, तू मत घबराय, तुझसे युद्ध करनेवाला थोड़े दिन के बीच, यदुकुल में श्रीकृष्णावतार होगा, उस दिन त्रिभुवन में तेरा सम्हिना करनेवाला कोई नहीं। यह बचन सुन बानासुर अति प्रसन्न हो बोला-नाथ, वह पुरुष कब अवतार लेगा और मैं कैसे जानूँगा कि अब वह उपज। राजा, शिवजी ने एक ध्वजा बानासुर को देके कहा कि इस बैरख को ले जाय, अपने मंदिर के ऊपर खड़ी कर दे, जब यह ध्वजा आप से आप टूटकर गिरे तब तू जानियो कि मेरा रिपु जन्मा।