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के बीच सब शास्त्र पढ़ गुन बिद्यातती*[१] हुई औ सब यन्त्र बजाने लगी। एक दिन ऊषा पार्वतीजी के साथ मिलकर बीन बजाय संगीत की रीति से गाय रही थी कि उस काल शिवजी ने आय पार्वती से कहा-हे प्रिये, मैने जो कामदेव को जलाया था, तिसे अब श्रीकृष्णचन्दजी ने उपजाया। इतना कह श्रीमहादेवजी गिरजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय न्हिलाय सुख की इच्छा कर अति लाड़ प्यार से लगे पार्वतीजी को वस्त्र आभूषन पहराने औ हित करने। निदान अति आनंद में मगन हो डमरू बजाय बजाय, तांडव नाच नाच नाच, संगीत शास्त्र की रीति से गाय नाय शिवा को लगे रिझाने और बड़े प्यार से कंठ लगाने । उस समय ऊषा शिव गवरी का सुख प्यार देख देख, पति के मिलने की अभिलाषा कर मन ही मन कहने लगी कि मेरा भी कंत होय तो मैं भी शिव पार्वती की भाँति उसके साथ विहार करूँ। पति बिन कामिनी ऐसे शोभाहीन है, जैसे चन्द्र बिन जामिनी।

महाराज, जो ऊषा ने मनही मन इतनी बात कही तो अंतरजामिनी†[२] श्रीपार्वतीजी ने ऊषा की अंतरगति जान, उसे अति हित से निकट बुलाय प्यार कर समझायके कहा कि बेटी, तू किसी बात की चिन्ता मन मे मत कर तेरा पति तुझे सपने में आय मिलेगा, तू विसे ढुँढ़वाय लीजो औ उसीके साथ सुख भोग कीजो। ऐसे वर दे शिवरानी ने ऊषा को बिदा किया। वह सब विद्या पढ़, बर पाय, दंडवत कर अपने पिता के पास आई।


  1. * (क) मे 'विद्यावान' है।
  2. † (क) 'अंतरजामी' है।