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आय खड़ा हुआ। यह उसे देखते ही मोहित होय लजाय सिर झुकाय रही। तब उसने कुछ प्रेमसनी बाते कह, स्नेह बढ़ाय, निकट आय, हाथ पकड़, कठ लगाय इसके मन का भ्रम औ सोच सकोच सब बिसराय दिया। फिर तो परस्पर सोच संकोच तज, सेज पर बैठ, हाव भाव कटाक्ष औ आलिगन चुंबन कर सुख देने लेने लगे औं आनंद मे मगन हो प्रीति की बाते करने की इसमे कितनी एक बेर पीछे उषा ने ज्यो प्यार करना चाहा कि पति को अँकवार भर कंठ लगाऊँ, तो नयनों से नीद गई औ जिस भाँति हाथ बढ़ाय मिलने को भई थी तिसी भाँति मुरझाय पछताय रह गई।

जाग परी सोचति खरी, भयो परम दुख ताहि।
कहाँ गयो वह प्रानपति, देखत्त चहुँ दिसि चाहि॥
सोवत ऊषा मिलिहौ काहि। फिर कैसे मै देखौ ताहि॥
सोबत जो रहती हौ आज। प्रीतम कबहुँ न जातौ भाज॥
क्यौ सुख मे गहिबे कौ भई। जो यह नींद नयन तें गई॥
जागतही जामिनि जम भई। जैहै क्योकर अब यह दई॥
बिन प्रीतम जिय निपट अचैन। देखे बिन तरसत हैं नैन॥
श्रवन सुन्यौ चाहत है बैन। कहाँ गये प्रीतम सुखदैन॥
जो सपने पिय पुनि लखि लेऊँ। प्रान साधकर उनके देऊँ॥

महाराज, इतना कह ऊषा इति उदास हो पिय का ध्यान कर सेज पर जाय मुख लतेट पड़ रही। जब रात जाय भोर हुआ औ डेढ़ पहर दिन चढ़ा, तब सखी सहेली मिल आपस मे कहने लगी कि आज क्या है जो ऊषा इतना दिन चढ़ा औ अब तक सोती नहीं उठी। यह बात सुन चित्ररेखा बानासुर के प्रधान कूपभाँड