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की बेटी चित्रशाला में जाय क्या देखती है कि ऊषा छपरखट के बीच मन मारे जी हारे निढा पड़ी रो रो लंबी साँसें ले रही है। उसकी यह दशा देख-

चित्ररेष बोली अकुलाय। कह सखि तू मोसो सममाय॥
आज कहा सोचति है खरी। परम बियोग समुद्र मे परी॥
रो रो अधिक उसासें लेत। तन मन ब्याकुल है किहि हेत॥
तेरे मन को दुख परिहरौ। मन चीत्यौ कारज सब करौ॥
मोसी सखी और ना धनी। है परतीति मोहि आपनी॥
सकल लोक में हौ फिर आऊँ। जहाँ जाउँ कारज कर ल्याऊँ॥
मोकौ बर ब्रह्मा ने दीनौ। बस मेरे सबही कौं कीनौ॥
मेरे संग सारदा रहै। वाके बल करिही जो कहै॥
ऐसी महामोहिनी जानौ। ब्रह्मा रुद्र इन्द्र छलि आनौ॥
मेरौ कोऊ भेद न जाने। अपनी गुन को आप बखाने॥
ऐसे और न कहिहै कोऊ। भलौ बुरौ कोऊ किन होऊ॥
अब तू कह सब अपनी बात। कैसे कटी आज की रात॥
मोसों कपट करै जिन प्यारी। पुजवोगी सब आस तिहारी॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही ऊषा अति सकुचाय सिर नाय चित्ररेखा के निकट आय मधुर बचन से बोली कि सखी, मै तुझे अपना हितू जान रात की बात सब कह सुनाती हूँ, तू निज मन में रख और कुछ उपाय कर सके तो कर। आज रात को सपने में एक पुरुष मेघबरन, चंद्रबदन, कँवलनयन, पीतांबर पहने पीतपट ओढ़े मेरे पास आय बैठा औ उसने अति हित कर मेरा मन हाथ में ले लिया। मै भी सोच संकोच तज उससे बाते करने लगी। निदान बतराते बतराते जो मुझे प्यार आया तो