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मैने उसे पकड़ने को हाथ बढ़ाया। इस बीच मेरी नीद गई औ उसकी मोहिनी मूरत मेरे ध्यान में रही।

देख्यो सुन्यो और नहिं ऐसो। मै कह कहाँ बताऊँ जैसा॥
वाकी छबि बरनी नहि जाय। मेरो चित लै गयो चुराय॥

जय मै कैलास में श्रीमहादेवजी के पास विद्या पढ़ती थी। तब श्रीपार्वतीजी ने मुझे कहा था कि तेरा पति तुझे स्वप्न में आय मिलैगा, तू उसे ढूँँढवा लीजो। सो बर आज रात मुझे सपने में मिला, मै उसे कहॉ पाऊँ औ अपने बिरह की पीर किसे सुनाऊँ, कहॉ जाऊँ, उसे किस भॉति ढुँढ़वाऊँ, न विसका नाम जानूँँ न गॉम? महाराज, इतना कह जब ऊषा लंबी सॉस ले मुरझाय रह गई तद चित्ररेखा बोली कि सखी, अब तू किसी बात की चिन्ता मत करै, मैं तेरे कंत को तुझे जहॉ होगा तहॉ से ढूँँढ़ ला मिलाऊँगी। मुझे तीनो लोक में जाने की सामर्थ है, जहॉ होगा तहॉ जाय जैसे बनेगा तैसेही ले आऊँगी, तू मुझे उसका नाम बता औ जाने की आज्ञा दे।

ऊषा बोली―बीर, तेरी वही कहावत है कि मरी क्यौ? कि सांस न आई। जो मै उसको नॉव गॉव ही जानती सो दुख काहे का था, कुछ न कुछ उपाय करती। यह बात सुन चित्ररेखा बोली―सखी, तू इस बात का भी सोच न कर, मैं तुझे त्रिलोकी के पुरुष लिख दिखाती हूँ, विनमे से अपने चितचोर को देख बता दीजो, फिर ला मिलाना मेरा काम है। तब तो हँसकर ऊषा बोली―बहुत अच्छा। महाराज, यह बचन ऊषा के मुख से निकलते ही चित्ररेखा लिखने का सब सामान मँगाय आसन मार बैठी औ गनेश सारदा को मनाय गुरु का ध्यान कर लिखने