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यह शरीर किसी काम का नहीं इससे किसीका काम हो सके तो यही बड़ा काम है, इसमें स्वास्थ परमारथ दोनों होते है। महाराज, इतना बचन सुनाय चित्ररेखा पुनि यो कह बिदा हो अपने घर गई, कि सखी भगवान के प्रताप से तेरा कंत मैने तुझे ला मिलाया, अब तू इसे जगाय अपना मनोरथ पूरा कर। चित्ररेखा के जाते ही ऊषा अति प्रसन्न लाज किये, प्रथम मिलन का भय लिये, मनही मन कहने लगी―

कहा बात कहि पियहि जगाऊँँ। कैसे भुजभर कंठ लगाऊँ॥

निदान बीन मिलाय मधुर मधुर सुरो से बजाने लगी। बीन की धुनि सुनते ही अनरुद्धजी जाग पड़े और चारो ओर देख देख मन मन यो कहने लगे—यह कौन ठौर, किसका मंदिर, मैं यहॉ कैसे आया और कौन मुझे सोते को पलंग समेत उठा लाया? महाराज, उस काल अनरुद्धजी तो अनेक अनेक प्रकार की बाते कह कह अचरज करते थे औ ऊषा सोच संकोच लिये प्रथम मिलन का भय किये, एक ओर खड़ी पिय का चंदमुख निरख निरख अपने लोचन चकोरो को सुख देती थी, इस बीच―

अनरुद्ध देखि कहै अकुलाय। कह सुंदरि तू अपने भाय॥
है तू को मोपै क्यो आई। कै तू मोहि आप लै आई॥
सॉच झूठ एकौ नहि जानौ। सपनौ सौ देखतु हौं मानौ॥

महाराज, अनरुद्धजी ने इतनी बाते कहीं औ ऊषा ने कुछ उन्तर न दिया बरन और भी लाज कर कोने में सट रही। सब तो उन्होने झट उसका हाथ पकड़ पलंग पर ला बिठाया औ प्रीतिसनी प्यार की बाते कह उसके मनको सोच, संकोच और