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महाराज, ऐसा समय देख एक बार तो सब बार मूँद ऊषा बहुत घबराय, घर में आय, अति प्यार कर, पिय को कंठ लगाय टी। पीछे पिय को दुराय, सखी सहेलियो से छिपाय, छिप छिप केंत की सेवा करने लगी। निदान अनरुद्ध का आना सखी सहेलियों ने जाना फिर तो यह दिन रात पति के संग सुख भोग किया करे। एक दिन ऊषा की मॉ बेटी की सुध लेने आई तो उसने छिपकर देखा कि वह एक महा सुंदर तरुन पुरुष के साथ कोठे में बैठी आनंद से चौपड़ खेल रही है। यह देखते ही बिन बोले चाले दबे पाओ फिर मनही मन प्रसन्न हो असीस देती सूंट गरे वह अपने घर चली गई।

आगे कितने एक दिन पीछे अषा पति को सोता देख, जी में यह बिचार कर सकुचती सकुचती घर से बाहर निकली, कि कहो एसा न हो जो कोई मुझे देख अपने मन मे जाने कि ऊषा पति के लिये घर से नहीं निकलती। महाराज, ऊषा कंत को अकेला छोड़ जाते तो गई पर उससे रहा न गया, फिर घर मे जाय केवाड़ लगाय बिहार करने लगी। यह चरित्र देख पौरियो ने प्रापस में कहा कि भाई, आज क्या है जो राजकन्या अनेक दिन पिछे घर से निकली औ फिर उलटे पॉओ चली गई। इतनी बात के सुनतेही उनमें से एक बोला कि भाई, मै कई दिन से देखता हूँ ऊषा के मन्दिर का द्वार दिनरात लगा रहता है और घर भीतर कोई पुरुष कभी हँस हँस बाते करता है और कभी चौपड़ खेलता है। दूसरे ने कहा—जो यह बात सच है तो चलो बानासुर से जाय रहैं, समझ बूझ यहाँ क्यों बैठ रहैं।

एक कहै यह कही न जाय। तुम सब बैठ रहौ अरगाय॥