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ऐसे कह अनरुद्धजी ने वेद मंत्र पढ़, एक सौ आठ हाथ की सिला बुलाय, हाथ में ले, बाहर निकल, दुल में जाय बानासुर को ललकारा। इनके निकलतेही बानासुर धनुष चढ़ाय सब कटक ले अनरुद्धजी पर यो टूटा कि जैसे मधुमाखियों का झुंड किसीपै टूटे। जद असुर अनेक अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने लगे पद क्रोध कर अनरुद्धजी ने सिला के हाथ कै एक ऐसे मारे कि सब असुरदल काई सो फट गया। कुछ मरे कुछ घायल हुए, बचे सो भाग गये। पुनि बानासुर जाय सबको घेर लाया औ युद्ध करने लगा। महाराज, जितने अस्त्र शस्त्र असुर चल्लाते थे तितने इघर उधर ही जाते थे औ अनरुद्धजी के अंग में एक भी ने लगता था।

जे अनरुद्ध पर परे हथ्यार। अधबर कटें सिला की धार॥
सिला प्रहार सह्यौ नहि परै। बज्र चोट मनौ सुरपति करै॥
लागत सीस बीच तें फटे। टूटहिं जांघ भुजा धर कटै॥

निदान लड़ते लड़ते जब बानासुर अकेला रह गया औ सब कटक कट गया, तब उसने मनही मन अचरज कर इतना कह नागपास से अनरुद्धजी को पकड़ बॉधा, कि इस अजीत को मैं कैसे जीतूँँगा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, जिस समय अनरुद्धजी को बानासुंंर नागपास से बॉध अपनी सभा में ले गया, उस काल अनरुद्धजी तो मन ही मन यों विचारते थे कि मुझे कष्ट होय तो होय पर ब्रह्मा का बचन झूठा करना उचित नहीं, क्यौकि जो मैं नागपास से बल कर निकलूँँगा तो उसकी अमर्याद होगी, इससे बँधे रहना ही भला है।