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इतनी बात के सुनतेही बानासुर ने अपने पुत्र स्कध को बुलाय के कहा कि बेटा तुम अपनी बहन को सभा से उठाय, घर में ले जाय, पकड़ रक्खो औ निकलने न दो।

पिता की आज्ञा पातेही स्कध बहन के पास जा अति क्रोध कर बोला कि तैने यह क्या किया पापनी, जो छोड़ी लोक लाज औ कान अपनी। हे नीच, मै तुझे क्या बध करूँ, होगा पाप और अपजस से भी हूँ डरूँँ। ऊषा बोली कि भाई, जो तुम्हें भावै सो कहो औ करो। मुझे पार्वतीजी ने जो बर दिया था सो बर मैने पाया। अब इसे छोड़ और को धाऊँ, तो अपने को गांंली चढ़ाऊँ, तजती है पति को अकुलीना नारि, यही रीति परंपरा से चली आती है बीच संसार। जिससे बिधना ने सम्वन्ध किया उसीके संग जगत मे अपजस लिया तो लिया। महाराज, इतनी बात के सुनतेही स्कंध क्रोध कर हाथ पकड़ ऊषा को वहॉ से मंदिर मे उठा लाया औ फिर न जाने दिया।

पुनि अनरूद्धजी को भी वहॉ से उठाय कहीं अनत ले जाये बंध किया। उस काल इधर तो अनरुद्धजी तिय के वियोग मे महासोग करते थे औ उधर राजकन्या कंत के बिरह में अन्न पानी तज कठिन जोग करने लगी। इस बीच कितने एक दिन पीछे एक दिन नारद मुनिजी ने पहले तो अनरुद्धजी को जाय समझाया कि तुम किसी बात की चिन्ता मत करो अभी श्रीकृष्णचंद आनंदकंद औ बलराम सुखधाम राक्षसो से कर संग्राम तुम्हे छोड़ाय ले जायँगे।

पुनि बानासुर को जा सुनाया कि राजा जिसे तुमने नागपास से पकड़ बॉधा है, वह श्रीकृष्ण का पोता औ प्रद्युम्नजी का बेटा