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चौसठवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जब अनरुद्धजी को बँधे बँधे चार महीने हुए तव नारदजी द्वारका पुरी मे गये तो वहाँ क्या देखते हैं कि सब यादव महा उदास मनमलीन तनछीन हो रहे है औ श्रीकृष्णजी औ बलरामजी उनके बीच में बैठे अति चिन्ता कर कह रहे हैं कि बालक को उठाय यहाँ से कौन ले गया। इस भॉति की बातें हो रही थीं औ रनवास मे रोना पीटना हो रहा था, ऐसा कि कोई किसीकी बात न सुनता था। नारदजी के जातेही सब लोग क्या स्त्री या पुरुष सब उठ धाये औ अति व्याकुल तनछीन, मनमलीन, रोते बिलबिलाते सनमुख आन खड़े हुए। आगे अति विनती कर हाथ जोड़ सिर नाय हाहा खाय खाय नारदजी से सब पूछने लगे।

साँची बात कहौ ऋषिराय। जासो जिय राखे बहिराय॥
कैसे सुधि अनरुद्ध की लहैं। कहौ साधि ताके बल रहैं॥

इतनी बात के सुनतेही श्रीनारदजी बोले कि तुम किसी बात की चिन्ता मत करो औ अपने मन का शोक हरो। अनरुद्धजी जीते जागते सोनितपुर में हैं। वहाँ विन्होने जाय राजा बानासुर की कन्या से भोग किया, इसीलिये उसने उन्हें नागपास से पकड़ बॉधा है। बिन युद्ध किये वह किसी भँति अनरुद्धजी को न छोड़ेगा। यह भेद मैंने तुम्हें कह सुनाया आगे जो उपाय तुम से हो सके सो करो। महाराज, यह समाचार सुनाय नारद मुनिजी तो चले गये। पीछे सब जदुबंसियों ने जाय राजा उग्रसेन से