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कहा कि महाराज, हमने ठीक समाचार पाये कि अनरुद्धजी सोनितपुर में बानासुर के ह्यॉ है। इन्होने उसकी कन्या रमी इससे उनने इन्हे नागपास से बॉध रक्खा है, अब हमें क्या आज्ञा होती है। इतनी बात के सुनतेही राजा उग्रसेन ने कहा कि तुम हमारी सब सेना ले जाओ और जैसे बने तैसे अनरुद्ध को छुड़ा लाओ। ऐसा बचन उग्रसेन के मुख से निकलतेही महाराज, सब यादव तो राजा उग्रसेन का कटक ले बलरामजी के साथ हुए और श्रीकृष्णचंद औ प्रद्युम्नजी गरुड़ पर चढ़ सबसे आगे सोनितपुर को गए।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेतजी बोले कि महाराज, जिस काले बलरामजी राजा उग्रसेन का सब दल ले द्वारकापुरी से धौंसा दे सोनितपुर को चले, उस समय की कुछ शोभा वरनी नहो जाती कि सब के आगे तो बड़े बड़े दंतीले मतवाले हाथियो की पांति, तिनपर धौसा बाजता जाता था औ ध्वजा पताका फहराती थी। तिनके पीछे एक और गजो की अवली अंबारियो समेत, जिनपर बड़े बड़े रावत, जोधा, सूर, वीर यादव झिलम टोप पहने सब शस्त्र अन्न लगाये बैठे जाते थे। उनके पीछे रथो के तातो के तांते दृष्ट आते थे।

विनकी पीठ पर घुड़चढ़ो के यूथ के यूथ बरन बरन के घोड़े गंडे पट्टेवाले, गजगह पाखर डाले, जमाते, ढहराते, नचाते, कुदाते, फँदाते चले जाते थे और उनके बीच बीच चारन जस गाते थे औ कड़खैत कड़खा। तिस पीछे फरीं, खांंड़े, छुरीं, कटारी, जमधर, धोपे, बरछीं, बरछे, भाले, बल्लम, बाने, पटे, धनुष बान, गदा चक्र, फरसे, गँड़ासे, लुहॉगी, गुप्ती, बाँक, बिछुए