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उस काल महाकाल सरूप शिवजी श्रीकृष्णचंद के सनमुख हुए। बानासुर बलरामजी के सोंही हुआ, स्कंध प्रद्युम्नजी से आये भिड़ा और इसी भॉति एक एक से जुट गया औ दोनो ओर से शस्त्र चलने लगा। उधर धनुष पिनाक महादेवजी के हाथ, इधर सारंग धनुष लिये यदुनाथ। शिवजी ने ब्रह्मबान चलाया, श्रीकृष्णजी ने ब्रह्म शस्त्र से काट गिराया। फिर रुद्र ने चलाई महाबयार, सो हरि ने तेज से दीनी टार। पुनि महादेव ने अग्नि उपजाई, वह मुरारि ने मेह बरसा बुझाई और एक महा ज्वाला उपजाई, सो सदाशिवजी के दल में धाई। उसने दाढ़ी मूछ औ जलायके केस, कीने सब असुर भयानक भेस।

जब असुरदल जलने लगा औ बड़ा त्राहकार हुआ, तब भोलानाथ ने जले अधजले राक्षसो औ भूत प्रेत को तो जल बरसाय ठंढा किया और आप अति क्रोध कर नारायनी बान चलाने को लिया। पुनि मनही मन कुछ सोच समझ न चलाय रख दिया। फिर तो श्रीकृष्णजी आलस्य वान चलाय सबको अचेत कर लगे असुरदल काटने, ऐसे कि जैसे किसान खेती काटे। यह चरित्र देख जो महादेवजी ने अपने मन में सोचकर कहा कि अब प्रलय युद्ध किये बिन नही बनता, तोही स्कंध मोर पर चढ़ धाया और अंतरीक्ष हो उसने श्रीकृष्णजी की सेना पर बान चलाया।

तब हरि सो प्रद्युम्न उच्चरै। मोर चढ्यौ ऊपर ते लरै॥
आज्ञा देहु युद्ध अति करै। मारौ अबहि भूमि गिर परे॥

इतनी बात के कहते ही प्रभु ने आज्ञा दी औ प्रद्युम्नजी ने एक बान मारा सो मोर को लगा, स्कंध नीचे गिरा। स्कंध के