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सेना देख अपने घर गई। आगे बानासुर ने आय बड़ा युद्ध किया पर प्रभु के सनमुख ने ठहरा, फिर भारी महादेवजी के पास गया। बानासुर को भयातुर देख शिवजी ने अति क्रोध कर, महा विषमज्वर को बुलाय श्रीकृष्णजी की सेना पर चलाया। विस महावली ने, बड़ा तेजस्वी जिसका तेज सूरज के समान, तीन मूँँड़, नौ पग, छह केरवाला, त्रिलोचन, भयानक भेष श्रीकृष्णचंद के दल को आय साला। उसके तेज से जदुबंसी लगे जलने औ थर थर कॉपने। निदान अति दुख पाये घबराय यदुबंसियों ने आय श्रीकृष्णजी से कहा कि महाराज, शिवजी के ज्वर ने ऑय सारे कटक को जलाय मारा, इसके हाथ से बचाइये नही तो एक भी जदुबंसी जीता न बचेगा। महाराज, इतनी बात सुन औ सबको कातर देख हरि ने सीतज्वर चलाया, वह महादेव के ज्वर पर धाया। इसे देखतेही वह डरकर पलाया औ चला चला सदाशिवजी के पास आया।

तब ज्वर महादेव सो कहै। राखहु सरन कृष्णज्वर दहै॥

यह बचन सुन महादेवजी बोले किं श्रीकृष्णचंदजी के ज्वर को बिन श्रीकृष्णचंद ऐसा त्रिभुवन में कोई नहीं जो हरे। इससे उत्तम यही है कि तू भक्तहितकारी श्रीमुरारी के पास जा। शिव वाक्य सुन सोच विचार विषमज्वर श्रीकृष्णचंद आनंदकंदजी के सनमुख जी हाथ जोड़ अति बिनती कर गिड़गिड़ाय हा हा खाय बोला―हे कृपासिंधु-दीनबंधु-पतितपावन-दीनदयाल मेरा अपराध क्षमा कीजै औ अपने ज्वर से बचाय लीजै।

प्रभु तुम हौ ब्रह्मादिक ईस। तुम्हरी शक्ति अगम जगदीस॥
तुमही रचकर सृष्टि सँवारी। सबै माया जग कृष्ण तुम्हारी॥

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