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लड़ झगड़ फाड़ फाड़ खाते थे। पुनि कौवे सिरे से ऑखे निकाल निकाल ले ले उड़ उड़ जाते थे।

श्रीशुकदेवजी बोले―महाराज, रनभूमि की यह गति देख बानासुर अति उदास हो पछताने लगा। निदान निर्बल हो सदाशिवजी के निकट गया तब―

कहत रुद्र मन भाहि बिचार। अस हरि की कीजै मनुहार॥

इतना कह श्रीमहादेवजी बानासुर को साथ ले वेद पाठ करते वहॉ आए कि जहॉ रनभूमि में श्रीकृष्णचंद खड़े थे। बानासुर को पाओ पर डाल शिवजी हाथ जोड़ बोले कि हे सरनागतवत्सल; अब यह बानासुर आपकी सरन आया इसपर कृपा दृष्टि कीजे औ इसका अपराध मन मे न लीजे। तुम तो बार बार औतार लेते हो भूमि का भार उतारने को और दुष्ट हतन औ संसार के तारने को। तुम ही प्रभु अलख अभेद अनंत, भक्तो के हेत संसार में आय प्रकटते हो भगवंत। नहीं तो सदा रहते हो बिराट स्वरूप, तिसका है ग्रह रूप। स्वर्ग सिर, नाभि आकाश, पृथ्वी पॉव, समुद्र पेट, इन्द्र भुजा, पर्वत, नख, बादल केस, रोम वृक्ष, लोचन ससि * औ भानु, ब्रह्मा मन, रुद्र अहंकार, पवन स्वासा, पलक लगना रात दिन, गरजच शब्द।

ऐसे रूप सदा अनुसरौ। काहू पै नहि जाने परौ॥

और यह संसार दुख का समुद्र है इसमें चिन्ता औ मोहरूपी जल भरा है। प्रभु, बिन तुम्हारे नाम की नाव के सहारे कोई इस महा कठिन समुद्र के पार नही जा सकता और यों तो बहुतेरे डूबते उछलते हैं जो नरदेह पाकर तुम्हारा भजन सुमरन औ न


* (क) मे सूर औ भानु हैं।